Friday, December 16, 2016

‘विमर्श’ : तुफैल अहमद के कई सवाल, जवाब भी उसी में

भोपाल स्थित रवीन्द्र भवन में विवेकानन्द केन्द्र द्वारा ‘आतंकवाद, धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यकवाद’ पर ‘विमर्श’ नामक वैचारिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में बीबीसी के ख्यातनाम पूर्व पत्रकार, लेखक व विचारक श्री तुफैल अहमद ने बड़ी स्पष्टता से अपने विचारों को साझा किया। प्रस्तुत है उनके भाषण का सारांश :-
“आप चाहे बस में सफ़र कर रहे हों, अथवा ट्रेन या हवाई जहाज में, अपने सहयात्री से आम तौर पर तीन सवाल पूछते हैं - आपका नाम क्या है, कहां से आ रहे हैं, अब कहां जाएंगे। दुनिया में हर जगह यही सवाल एक दूसरे से पूछे जाते हैं। यही व्यक्तिगत सवाल आपको राष्ट्र के रूप में भी पूछना चाहिए, अपने आप से भी और दूसरों से भी। इतिहासकारों की बातों पर मत जाइए, जो कहते हैं कि हमारी सभ्यता 5000 साल पुरानी है, हमारी सभ्यता इससे कहीं बहुत अधिक प्राचीन है।
जिन दिनों मैं किंग्स कॉलेज इंग्लैंड में पढ़ रहा था, मैंने दहशतगर्दी कैसे ख़त्म हो, इसे लेकर एक पुस्तक लिखी थी। 60 के दशक में कोरिया में जंग हुई, जो बेनतीजा रही। कई बार लड़ाईयां समझ विकसित होने पर अपनेआप खत्म हो जाती हैं, जैसे कि इंडोनेशिया में हुआ। जिहादियों को वहां आयी जबरदस्त सुनामी का कहर देखने के बाद समझ में आया कि वे फिजूल लड़ रहे थे और वहां शान्ति आ गई। जबकि 1971 में हमारी बांग्लादेश युद्ध में निर्णायक विजय हुई, जो कि बहुत कम युद्धों में होती है, किन्तु युद्ध समाप्त नहीं हुआ। 1930-40 के दशक में कुछ सवाल पैदा हुए। हमारे पुरखों को लगा कि देश की जमीन का एक टुकड़ा मुस्लिमों को दे देने से जंग खत्म हो जाएगी। पर वह खत्म हुई क्या?
मक्का में गैर मुस्लिमों ने प्रोफेट मोहम्मद से कहा कि आप और हम मक्का में साथ-साथ रह सकते हैं, किन्तु मोहम्मद ने कहा यह नहीं हो सकता, आपका धर्म अलग है, रहन सहन अलग है, हम साथ नहीं रह सकते। और यहीं से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का जन्म हुआ। वहां अब कोई जू नहीं बचे, कोई यहूदी नहीं बचे। अफगानिस्तान में, बलूचिस्तान में, पाकिस्तान में कहीं हिन्दू नहीं बचे। लाहौर सिक्ख महानगर था, अब नहीं है। वही क्रम आज भी जारी है। कश्मीर में, कैराना में, केरल में, प.बंगाल के मालदा में क्या हो रहा है? मेरे पास केवल सवाल हैं, जबाब नहीं।
हमें बताया जाता है कि 47 में, 65 में, 69 में 71 में, कारगिल में हमने पाकिस्तान को हराया। यह सफ़ेद झूठ है। फ़ौज ने लड़ाईयां जीतीं, पर राजनीतिज्ञ जीती जंग हार गए। 47 में गिलगिट, बाल्टिस्तान हमने पाकिस्तान को सौंप दिया, 65 में जीता हुआ हाजीपीर वापस कर दिया। जरा सोचिए कि ये हमारे पास होते तो हमारे ट्रक यूरोप तक फर्राटे भर रहे होते। 71 में तो 93,000 पाकिस्तानी फ़ौजी बंदी बिना बारगेन किये वापस कर दिए। मनमोहन की सरलता तो देखिए कि वे तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर स्थाई रूप से पाकिस्तान को सौंपकर शान्ति लाने को सहमत हो गए थे।
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि सिकंदर, मुग़ल, डच, अंग्रेज सब आए और हमें लूटकर चले गए। हम इतने अच्छे थे कि हमने चुपचाप सबको सहन किया, कई बार तो आमंत्रित भी किया कि आओ और हमको लूटो। जरा सोचिए कि महमूद गजनवी ने हम पर सत्रह बार हमला किया, और हमने उसे पराजित किया, किन्तु क्या एक बार भी उसका पीछाकर उसे सबक सिखाया। हर बार एक हमले के बाद दूसरे हमले का इंतज़ार करते रहे। एक और सवाल? हमारे यहां गाजीपुर है, गाजियाबाद है। कभी सोचा ये गाजी क्या है? गाजी वह जो जंग में जीतता है। यह नाम क्या सिद्ध करते हैं? क्या यह गुलामी की मानसिकता नहीं है?
यह विचारों का सफ़र है, मैं कोई निर्णय नहीं दे रहा हूं, केवल सवाल उठा रहा हूं। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया, वह कौनसी मानसिकता थी, जिसने अधिकांश एम.पी. को अपने कब्जे में लेकर क़ानून बदला? इस्लाम में औरत हेड ऑफ़ स्टेट नहीं हो सकती, कोई गैर मुस्लिम भी हेड ऑफ़ स्टेट नहीं हो सकता। अतः अगर पाकिस्तान या सऊदी अरब ऐसे क़ानून बनाए, तो समझ में आता है किन्तु भारत में?
आस्ट्रेलियाई अर्थशास्त्री एके हाईक ने लिखा है कि बुद्धिजीवी समाज के हिसाब से नहीं, स्वयं के हिसाब से तर्क गढ़ता है। भारतीय लोकतंत्र ने 2014 में एक नई बुद्धिजीवी जमात पैदा की, जिसने लाइन में लगकर वोट के माध्यम से एक नया तंत्र पैदा कर दिया। बस फिर क्या था पुराने बुद्धिजीवियों की हालत जमीन पर रखी हुई मछली जैसी हो गई। उनकी तड़पन देखने लायक थी, उन्होंने कहा देश में असहिष्णुता आ गई है। अवार्ड वापसी शुरू हो गई। 19 अक्टूबर को बीएसपी की लखनऊ रैली में कुरआन ख्वानी हुई। उसके पहले राहुलजी मंदिरों में, दारुल उलूम देववंद में गए। यह मानसिकता क्या है?
47 के पहले तक आजादी की लड़ाई में हिन्दू मुसलमान साथ-साथ थे। हामिद दलवई राष्ट्रवादी मुसलमानों में अग्रणी थे, किन्तु दुर्भाग्य से अल्पायु में ही उनका निधन हो गया। सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में मुसलमानों के लिए वैज्ञानिक शिक्षा का खाका खींचा, किन्तु बाद में दोनों मामलों में अलगाववाद पनप गया। 1960 से 80 के दशक तक कांग्रेस दंगे करवाती रही। फिर औरत की चर्चा शुरू हुई। मुस्लिम को एंगेज करके रखा गया। क्या यही है अल्पसंख्यकवाद और धर्म निरपेक्षता?
कहा जाता है कि जिसकी संख्या कम वह अल्पसंख्यक, किन्तु यह सही नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में काले बहुसंख्यकों पर हुकूमत गोरे अल्पसंख्यक करते हैं। 1950 में हमारे यहां पार्लियामेंट पद्धति शुरू हुई। 52 के पहले चुनाव में ही 65 प्रतिशत सांसदों को 50 प्रतिशत से कम वोट मिले। इसके बाद के चुनावों में तो 25 प्रतिशत और 17 प्रतिशत वोट पाकर भी लोग चुनाव जीतते रहे। यही कारण है, जिसके चलते माइनोरिटी का विचार बढ़ता जा रहा है। माइनोरिटी का आधार होना चाहिए केवल गरीबी। जब देश के सभी कोलेजों में मुस्लिम आजादी से पढ़ सकते हैं, तो फिर उनके लिए अलग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय क्यों? प्रत्येक राजनीतिक दल को भी अपने-अपने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ समाप्त कर देने चाहिए। सिक्ख अपनेआप को माइनोरिटी नहीं मानते, पारसी नहीं मानते। मुस्लिमों में यह मानसिकता राजनीति ने पैदा की है।
सेक्यूलरिज्म का अर्थ क्या? धर्म के प्रभाव को न्यून कर वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना। हमारे संविधान के अनुसार कहें तो भारतीय राज किसी मजहब को सपोर्ट या अपोज नहीं करेगा। तीसरा आज का व्यवहारिक राजनीतिक सोच कि हर मुसलमान पाकिस्तानी है। नीतीश कुमार चुनाव पूर्व पाकिस्तान जाते हैं, बिहार के मुसलामानों को यह जताने के लिए कि, देखो मैं पाकिस्तान जा रहा हूं, तुम पाकिस्तानी हो, इसलिए मुझे वोट देना। और आंकड़े बताते हैं कि 84 प्रतिशत मुस्लिम वोट उन्हें मिले। 
मुम्बई में पाकिस्तानी गायक गुलाम अली का कार्यक्रम शिवसेना नहीं होने देती तो अखिलेश यादव और केजरीवाल उन्हें बुलाते हैं। वे हिन्दुस्तानी ए.आर. रहमान को नहीं बुलाएंगे। ममता बैनर्जी खौफनाक उर्दू बोलती हैं, लेकिन बांग्लादेशी तसलीमा नसरीन के पक्ष में आवाज नहीं निकालती। ये लोग केवल पाकिस्तानी हैं बांग्लादेशी भी नहीं हैं। यह मानसिकता भारतीय मुसलमानों के लिए भी खतरे की घंटी है। परिवर्तन केवल नए विचारों के संपर्क में आने पर ही आता है। मेरी गोवा में ‘जमीयत उलेमा ए हिन्द’ के मौलाना महमूद मदनी से बातचीत हुई। मैंने कहा कि इस्लाम नहीं बदलेगा, शरीया भी नहीं बदलेगी, लेकिन मुसलमान बदल सकता है। ट्रिपल तलाक मुद्दा नहीं है, मुद्दा है औरतों के साथ होने वाली नाइंसाफी। मैंने उनसे कहा, यूनीफोर्म सिविल कोड अर्थात सभी भारतीयों के लिए समान क़ानून। वह क़ानून आप स्वयं सुझाएं कि क्या होना चाहिए। वे उसके लिए भी तैयार नहीं हुए। इसे क्या कहा जाए? बिना सोचे समझे विरोध।
हमारे यहां की दहशतगर्दी के तीन प्रमुख कारण हैं -
- जब तक पाकिस्तान ज़िंदा है, तब तक वहां की फ़ौज आतंक को समर्थन जारी रखेगी।
- बांग्लादेश से भी हमें ऐसी ही चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
- मिडिल इस्ट (मध्य-पूर्व) से प्रभावित युवा, इससे निबटने के उपाय खोजने होंगे।
- हिन्दू, मुसलमान भारतीय बनकर रह सकें, ऐसी व्यवस्था बनानी होगी।
- जिनके पास बीपीएल कार्ड उन सबके बच्चों को नि:शुल्क उच्च शिक्षा।
- हम कौन हैं, इसे बताने वाली पाठ्यपुस्तकों की शृंखला का निर्माण, जिनमें हर धर्म की जानकारी हो। बच्चों के दिमाग का विस्तार होगा।
लगभग सवा अरब की भारतीय आबादी में 55 प्रतिशत युवा हैं, जिन्होंने न आजादी की लड़ाई देखी है और न ही आपातकाल की विभीषिका। ये वे लोग हैं, जिन्होंने खुली आजादी की हवा में सांस ली है। हम लोग मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देते हैं। लेकिन जरा सोचिए कि अगर मैकाले कर सकता था तो ‘भारतीय लोकतंत्र’ शिक्षा पद्धति में बदलाव लाकर उससे अच्छा क्यों नहीं कर सकता?”
कार्यक्रम का प्रारम्भ वन्दे मातरम से तथा समापन शान्तिपाठ से हुआ। विवेकानन्द केन्द्र के नगर प्रमुख सौरभ शुक्ला ने विवेकानन्द केन्द्र के कार्यों का विवरण प्रस्तुत किया। मुख्य अतिथि मध्यप्रदेश सरकार के मन्त्री लालसिंह आर्य ने भी कार्यक्रम को संबोधित किया। अध्यक्षीय भाषण व आभार प्रदर्शन विवेकानन्द केन्द्र के सह प्रांत संचालक व वरिष्ठ पत्रकार रामभुवन सिंह कुशवाह ने किया।

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