Wednesday, July 23, 2014

ईश्वरप्रित्यार्थम

महर्षि वेद व्यास की जयंती अनंतकाल हमारे देश में गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। उनका संपूर्ण जीवन वेद और वैदिक परंपराओं को व्यवस्थित करने और उसे निरंतरता और उद्येश्यपूर्ण बनाने में लगा था । उन्होने वेदों के माध्यम से विश्व के कल्याण के लिए ‘एकात्मकता’ का संदेश दिया, जो भौतिकवाद और व्यक्तिवाद के कारण जीवन से असंबद्ध होगया था। वेदों का यह  ‘एकात्मकता’ का  संदेश मानवता के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह ईश्वरीय कार्य है। जो हम भारतीय ही कर सकते है  किन्तु हम लंबे समय तक पराधीनता और कुसंस्कारों के निरंतर हमलों के कारण आलस्य,घृणा और स्वार्थों में घिर गए और ‘धर्म’ का वास्तविक अर्थ भूलकर कुछ धार्मिक कृत्यों तक सीमित रह गए।

पराधीनता की इस परीक्षा की घड़ी में स्वामी विवेकानन्द और अन्यान्य संगठनों का द्वारा इस  स्थिति को बदलने का प्रयास शुरू किए गए, विवेकानन्द केन्द्र  भी इसी तरह का एक प्रयास है। माननीय एकनाथजी स्वामी विवेकानन्द का संदेश की व्याख्या करते हुए  कहते हैं  “धर्म का के सच्चे आचरण से स्वयं में हीं भगवान की अनुभूति होती है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होने लगता है। उसी एकात्मता  के  विस्तार से आध्यात्मिकता और उस विराट को जानने की क्षमता का जागरण होता है। तब हम जान जाते हैं कि संपूर्ण मानव जाति एक है। इसी ‘एकात्मकता’ से  ‘मानव मात्र के विकास और कल्याण के लिए कार्य करने की तीब्र भावना जागृत होती है। लंबे समय तक गतिशील आध्यात्मिकता के जागरण से परिवर्तन आता है और श्रेष्ठ मानव मूल्यों के अस्तित्व के उच्चतर स्थिति की अनुभूति भी होती है लेकिन, अगर यह अनुष्ठान, भजन,संकीर्तन या परमेश्वर की प्रार्थना  तक सीमित रहा तो मानवता के कल्याण के लिए शायद ही कोई भूमिका अदा कर पाएगी।” समाज की इसी आवश्यकता का अनुभव करते हुये मान. एकनाथजी  ने यह आंदोलन शुरू किया। जो व्यक्ति में देवत्व का प्रकटीकरण करता है जिसके कारण उस धर्म का सही अर्थ भी समझ में आता है जो हम मे देवत्व का जागरण कर समाज के कल्याण कार्य के लिए प्रेरित करता है। एकनाथजी ने विवेकानन्द केंद्र की स्थापना केवल  शिला स्मारक का निर्माण के लिए नहीं की थी बल्कि वे इसके माध्यम से स्वामी विवेकानन्द के उन जीवंत विचारों को जन जन तक ले जाना चाहते थे ताकि भारत अपने उन उच्च आदर्शों को पूरा करने में सक्षम हो सके। इसीलिए एकनाथजी ने विवेकानन्द केन्द्रको  ‘ आध्यात्मिक प्रेरित सेवा संस्थान’ कहा। संगठन की अवश्यकता को समझाते हुये एकनाथजी कहते हैं “हमारे देश की तमाम बीमारियों का इलाज पूरे देश के एक ऐसा पराक्रमी आंदोलन की शुरूआत करने से होगा जो सही दिशा में पूरे देश को सोचने के लिए प्रेरित करे। यह दो तरह से होगा। प्रथम – लोगों में यह भाव भरा जाए कि उनमें देवत्व का ऐसा जन्मजात आध्यात्मिक गुण है जो उपनिषद आदि के उपदेशो  से प्रत्येक आत्मा में अपर दैवीय संभावना और स्वयं में ईश्वर होने का विश्वास हो और दूसरी ओर, उनमें राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की आध्यात्मिक क्षमता है।”

ऐसे आध्यात्मिक उन्मुख काम जारीरखने के लिए, एक कालातीत स्रोत प्रेरणा और मार्गदर्शनकी आवश्यकता है। ऐसा भाव जो कि भारत के सभी जन का  प्रतिनिधित्व करता है; एक भाव जो कार्यकर्ता में स्वप्रेरणा और समर्पण का भाव जाग्रत करता  हो। एक ऐसा भाव  जो प्रत्येक कार्यकर्ता में  फिर वह चाहें किसी क्षेत्र या परंपरा से क्यों न आया हो जाग्रत हो सके। एक ऐसा संभावनायुक्त भाव जो भारत के प्राचीन स्वर्णिम अतीत का दिग्दर्शन सारे विश्व को करा सके और सारी दुनिया केपी गले लगा सके। जाहिर है एक खूबी महान व्यक्तित्व के लिए ही चुनाव से नहीं होगी। यह तो ईश्वरीय कार्य है। जो विवेकानन्द केंद्र की प्रार्थना में व्यक्त किया गया है “त्वदीयायकार्यार्थ मीहोप जातह’’ – हम केवल अपने कामकरने के लिए पैदा होते हैं। इस कार्य के लिए ईश्वर के सिवाय और कोई मार्गदर्शक नहीं है। यह कैसे  समझा जा सकता है? वह हम  कैसे  करेंगे? पतांजलि कहते हैं कि “ तस्यावाचकः प्रनवाह” भगवान हमारे पास ॐकार के माध्यम से बोलते है।ओंकार वास्तव में परमेश्वर की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार ॐकार की उपासना से पूरे ब्रह्मांड का कल्याण होता है । इसलिए, विवेकानन्द केन्द्र में, ॐकार हमारा गुरु है।

ओंकार  में सभी नामों और रूपों के भगवान के शामिल हैं। जब हम कहते हैं कि भगवान हमारे मार्गदर्शक है तो  हम क्या मतलब है? भगवान हमें सीधे यह करने के लिए या कि  बताने वाला नहीं है। पूरेब्रह्मांड ओंकार में समाहित है। इस प्रकार भगवान इस ब्रह्मांड के रूप में प्रकट होता है।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "जब वह  प्रकट नहीं है तो अंधेरा है, बुराई है   और जबवह और अधिक प्रकट होता है, उसे ही  प्रकाश कहा जाता है। वही शुभ है। अच्छाई और बुराई में केवल हैं केवल डिग्री का सबाल है :  अंतर में केवल डिग्री है।  यह सब उस आत्म जागरण की एक सबाल  जहाँ अज्ञान है अंधेरा है और जहाँ ज्ञान है प्रकाश है।

जहां वहाँ दूसरों के लिएनिस्वार्थ भाव से सोचते है वहाँ  स्वार्थ, ईर्ष्या समाप्त हो जाती है। ईश्वरत्व अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। इस प्रकार ईश्वर ही हमारे कार्य, दायित्व में प्रकट होता है और यह सब कार्यकर्ताओं की ‘चमू’ में प्रकट होता है। इस प्रकारजब हम हमारे गुरु पूजा करते हैं इसका आशय यह है कि  वास्तव में हम ईश्वर के मार्गदर्शन में समूहिकता से  लक्ष्य के प्रति एक संगठित तरीके और  सामूहिक समझ से संकल्पित होते  है। इस कारण प्रत्येक कार्यकर्ता सभी के लिए अनमोल हो जाता है; और संगठनात्मक कार्य पवित्र साधना का रूप गृहण कर लेता है।

ॐकार का अर्थ है प्रतिज्ञान, सृजन, समावेशी दृष्टिकोण और आत्म-विलोपन।  का मतलब है। इस प्रकार, प्रत्येक कार्यकर्ता  ओंकार उपासना के द्वारा आत्म-विलोपन का अभ्यास करके सकारात्मक और रचनात्मक दृष्टि प्राप्त करता है।  ओंकार  कि उपासना काल से भारत में अनंत काल से हो रही है।इसीलिए भारत का दृष्टिकोण  समावेशी हो गया है।  इस समावेशी और  आध्यात्मिक  परंपरा को बनाए रखने के लिए  हमारे ऋषि,संन्यासी और योद्धा जीते और मरते आए हैं । इस प्रकार ॐकार कि उपासना  उन सभी व्यक्तित्व, घटनाएं इस आध्यात्मिक भूमि  के लिए  प्रेरणा कि  स्रोत बनी हुई हैं।

हम सब माननीय एकनाथजी स्वामी जी की शताब्दी पर्व की पूर्व संध्या पर अपने  इसी कार्यकेविस्तारके लिए प्रयास रत हैं। इसकारण इस   गुरुपूर्णिमा का उत्सव हमारे लिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है। जिसे हमें एक ‘दिव्य दृष्टि  और सामूहिकता के  साथ हमें  मनाना  चाहिए । इस वर्ष हम स्वयं को भगवान के हाथों में एक सही साधन के रूप में सौंपने के लिए हम अपनी शाखा केन्द्रों में गुरुपूर्णिमा का उत्सव मना सकते हैं ताकि हम ईश्वर के सही उपादान बनने की शक्ति प्राप्त कर सकें।

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