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Tuesday, July 15, 2014

हरियाली के हत्यारे

सम्पूर्ण प्रकृति, संसार और हमसब, पंच तत्वीय (आकाश, अग्नि, वायु, धरती और जल) पुतले हैं। इन्हीं के बल पर सबका जीवन, जीवन है। किसी भी एक तत्व की अनुपस्थिति मौत का कारण बन जाती है। जबतक इनमें संतुलन कायम रहता है, तबतक हम स्वस्थ, सम्पन्न और सुखी रहते हैं। इसीका अस्तित्व हरियाली में प्रकट होता है। हरियाली यानी खुशियाँ और उजाडने यानी बर्बादी। जीवन में हरियाली को विस्तृत आयाम हैं, जिनमें हर क्षेत्र समाया हुआ है। जीवन में हरियाली का अस्तित्व प्रेम, त्याग, सत्य, करुणा, अहिंसा, श्रम, शुद्ध आचरण-विचार-विहार, संवेदना, रहनसहन, खानपान जैसे मूल्यों की जीवनशैली पर ही टिका होता है। जो भी इन्हें तोडने का प्रयास करता है वह हरियाली का हत्यारा है। एक बालिश्त जिन्दगी में सबको क्या चाहिए सिर्फ खुशियाँ और सम्पूर्ण खुशहाली। प्रकृति अपने आँचल की हरियाली में हम सबको खुशियाँ ही परोसती रहती है, लेकिन हम हैं कि उसे उजाडने में कोई कोर-कसर नहीं छोडते। प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध शोषण, रसायन-कचरा-विष्ट का बेहिसाब उत्सर्जन यानी पर्यावरण को तहस-नहस करने पर आमादा होकर, हम अपनी नकली खुशियों के चक्कर में असली खुशियाँ होम करते आ रहे हैं। सदैव ही लेते रहने से खुशियाँ नहीं मिलतीं, देते रहने पर खुशियों का अंबार लग जाता है। आदमी के सोच में आई यह मोच, हरियाली की हत्यारिन है।

सुबह से शाम वाले इस जीवन में धूप-छाँव के बीच, व्येि को सिर्फ दो अद२द उस सकून की जरूरत होती है, जो हरियाली के मकसद यानी खुशियों से उसकी झोली भर दे। इसके लिए जरूरी है कि वह शुचिता की छतरी लेकर उस सहज-सरल मार्ग पर चले, जो उसे सुगंधित करते हुए मानवीयता से ओत-प्रोत रखे। दूसरों की आँख का आँसू अपनी ही आँख का महसूस करने वाला आदमी, सदा ही खुशियों से भरा रहता है। लेकिन, परोपकार की समझ का अकाल इस कदर पसरा हुआ है कि उसे केवल निज-हित के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। घनीभूत होते इस स्वार्थ ने दूसरों की हरियाली छीनकर अपने आँगन में रोपने की कोशिश तो भरपूर की, लेकिन अंतत... उसे काँटों के सिवा कुछ नहीं मिला इतिहास इसका गवाह है। स्वयं के जीवन की हरियाली के लिए अपनी विशुद्ध जीवनशैली को बनाए रखना जरूरी है। अपनी बे-काबू भूख को मिटाने की फिराक में प्रतिस्पर्धा, टाँग खिचाई, झूठ-फरेब, लूट-खसोट, आपा-धापी, चालाकी के सहारे हरियाली बटोरने के सभी जतन करने वाला, नीयत की नियति के फलस्वरूप अपनी बची-खुची हरियाली का हत्यारा बन जाता है।

परिवार और समाज की हरियाली, व्येि-व्येि में व्याप्त हरियाली की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। परिवार की हरियाली आपसी प्रेम, त्याग, सहयोग और एकजुटता पर टिकी होती है। किसी एक सदस्य की मति में यदि स्वार्थ, लोभ, अहंकार आदि छा जाएँ, तो फिर परिवार की हरियाली उजाडने में देर नहीं लगती। पूरा जीवन धूप में तपाकर अपनी संतान को छाया देने वालों को जीवन के अंतिम प‹डाव पर हरियाली की अधिक आस रहती है, परन्तु बुलन्दियों को छूने वाली औलाद, माता-पिता का ॠण उनकी स्वप्निल हरियाली को रेतीली बनाकर चुकाती है। संस्कारों की ऐसी भारी गिरावट पर हरियाली के भी आँसू नहीं थमते। औलाद जब बूढी होगी, तो उनकी हरियाली कैसी होगी... जैसे बीज बोओगे, वैसी ही हरियाली होगी। लोभ से भ्रष्टाचार, स्वार्थ से मनमुटाव, वासना से व्यभिचार, अवसाद से आत्महत्या, द्वेष से हिंसा, छल-कपट से शोषण, दुर्भावना से दुश्मनी आदि आदि घटनाएँ तब घटित होती हैं, जब आदमी मानवीय मूल्यों को ताक में रखकर, अपनी अंतहीन कामनाओं के साथ तथाकथित हरियाली को पाने के लिए नापाक हथकंडे अपनाने लगता है। ऐसे पतित लोग औरों की हरियाली के साथ, स्वयं की हरियाली की हत्या करने के भी दोषी हैं। हरियाली की चाहत तो सभी को होती है, लेकिन उसे उगाने, बढाने और संवारने वाले कम होते हैं। चहुँ ओर सब प्रकार की उज‹डती हरियाली का दोषी किसे मानेंŸ। सच तो यही है कि कमोबेश हमसब ही हैं, एकदूसरे की - हरियाली के हत्यारे

विरासत की हिफाजत

जब आदमी धरती पर आया, तो उसके पास कुछ नहीं था। प्रारम्भ में वह एकदम जंगली था। शने:.. शने:.. उसने सभ्य और सम्पन्न होना शुरू किया। सभ्यता के बीज, एक पीढी दूसरी पीढी को सौंपती रही। पीढी-दर-पीढी इन बीजों को उगाती हुई, संस्कारों के फूलों की खुशबू से हर अगली पीढी को महकाती रही। मनुष्यता के विकास की इस अथक और लम्बी यात्रा में धर्म और आचरण का अनुपम योगदान रहा, जो अस्तित्व के अन्त तक जारी रहेगा। 

विरासत में मिले वेद, उपनिषद, रामायण, गीता, अनेक धर्मग्रन्थों, इबादतगाहों, योग-वास्तु-औषध ज्ञान, संगीत, कला, परम्पराओं, संस्कारों, भाषा, रीति-रिवाजों, शिक्षा, नीतियों, व्यवस्थाओं, अनुसंधानों, महापुरुषों की सीख आदि अनेकानेक विधाओं ने मनुष्य को परिष्कृत करते हुए, उसे स्वस्थ-सुखी-सम्पन्न बनाने के प्रयास किए। उत्तरोत्तर निखार लेती हुई विरासत अपनी खुशबू से मनुष्य जाति को इंसानियत का पाठ पढाती रही। भारत में जन्मी मानवीय मूल्यों की गहन और सुदृढ विरासत ने ही भारत को विश्व-गुरु का दर्जा भी दिलाया। भारत के प्राण अपनी सांस्कृतिक विरासत में बसते हैं।

चारों धाम, जो हमें विरासत में मिले हमारी राष्ट्रिय और सांस्कृतिक एकता के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। ज्ञान से परिपूर्ण हमारे आदि ग्रन्थ मानवता के मार्गदर्शक हैं। हमारा साहित्य, नृत्य, संगीत, कला, परम्परा, रीतिरिवाज आदि मानवीय संवेदना, प्रेम, त्याग, उल्लास जैसे मूल्यों से सराबोर हैं। हमारा खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा, आचार-विचार आदि हमारी जीवनशैली के वे अंग हैं, जो हमें श्रेष्ठ जीवन की ओर ले जाते हैं। हमारी संस्कृति में प्रकृति-पूजा, हर जीव पर दया, उत्सवों से भरपूर ३६५ दिन, संतों का समागम, गुरु-शिष्य परम्परा, जीवन के १६ संस्कार आदि अनेक रूपों में जीवनपथ को सुगम बनाने वाले ये मूल्य, हमेें विरासत में मिले हैं परन्तु विरासत में मूल्यों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं।

वैश्वीकरण के साथ पश्चिमीकरण और अनेक कारणों से विरासत के पंख झुलसने लगे हैं। विरासत के कुछ प्रमुख मूल्यों से मुख मोडते हुए हम, दु...ख आमंत्रित कर रहे हैं। विरासत में मिली मूल्यवान अनुपम सीख, जैसे जहाँ नारी की पूजा होती हैं, वहाँ देवता निवास करते हैं; फल की इच्छा के बिना कर्म करो; संतोषी सदा सुखी; ईश्वर एक है रास्ते अनेक... कट्टरता इंसानियत का खून बहाती है; माता-पिता की सेवा ईश्वरीय सेवा है; दरिद्रनारायण की सेवा ही परम सेवा है; काम-क्रोध-लोभ-मोह और अहंकार नरक के द्वार हैं; ईर्ष्या, द्वेष, भेद-भाव अशांति की ओर ले जाते हैं; सादा-जीवन और उच्च विचार व्येित्व को निखारते हैं आदि आदि। परन्तु ये सभी जीवन मूल्य अब धूमिल होकर नारी की अस्मिता नोचने; वृद्धाश्रमों को बढावा देने, भ्रष्टाचार को गहराने; आतंक का विस्तार करने; बढती हुई संवेदनहीनता, धर्म के नाम पर छलावा-अंधविश्वास; गिरती नैतिकता; एकल परिवार; चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास, वानप्रस्थ) को नकारने; वर्ण व्यवस्था में कर्म नहीं, जन्म का बोलबाला आदि अनेक सनातन मूल्यों को भूलकर, पतन की ओर कदम बढा रहे हैं।

आज, जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट का दौर जारी है। लोभ और स्वार्थ इस कदर हावी होता जा रहा है कि परिवार जैसी पवित्र संस्था तक इस गंदगी से अछूती नहीं रही। थोडे से पैसों के लिए भी लोग अपना जमीर बेचने से नहीं हिचकिचाते। जन्म देने वाले माँ-बाप श्रद्धा और दो रोटी तक तरस जाते हैं। वासना का भूत इतना हावी हो जाता है कि रिश्तों तक को कलंकित करने से नहीं चूकते। सहनशीलता का पाठ हवा-हवाई होते हुए, छोटी-सी बात पर ही हत्या पर उतारू हो जाता है। ईमानदारी अब दुर्लभ है मिलावट, धोखाधडी का बोलबाला है। कोई भी ऐसा क्षेत्र ढूँ‹ढना मुश्किल है, जहाँ गिरावट न आई हो ।

जो व्यक्ति अपने परिवार का सगा न हो, वह समाज और राष्ट्र ́का कितना हितैषी हो सकता है। मानवीयता से ओतप्रोत सांस्कृतिक विरासत से छिटककर दानवी हिरासत में जकडे लोग, कब मुे होंगे। अमानवीयता का दंश हम कबतक झेलते रहेंगे। अब भी समय है अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को सम्हालकर, उसका अनुसरण करें। राम-राज्य और श्रेष्ठ सुखी मनुष्य बनने की यदि मन में ललक है तो हमें करनी ही होगी, हमारी श्रेष्ठतम विरासत की हिफाजत।